प्रो. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव के लेखों का सह-संपादन हिंदी भाषा का समाजशास्त्र, अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान, साहित्य का भाषिक चिंतन।
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इनमें से ‘हिंदी भाषा का समाजशास्त्र ' से लेकर ‘साहित्य का भाषिक चिंतन' तक की पुस्तकें उनके निधन के बाद प्रकाशित हुईं।
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इनमें से ‘ हिंदी भाषा का समाजशास्त्र ' से लेकर ‘ साहित्य का भाषिक चिंतन ' तक की पुस्तकें उनके निधन के बाद प्रकाशित हुईं.
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भाषा क्योंकि मानव समाज की संपत्ति है अतः उसमें भी ये तीनों अंतर्भुक्त होते हैं-भाषा दर्शन, भाषा का समाजशास्त्र और भाषा समाज का मनोविज्ञान भाषा के व्यावहारिक विकल्पों में गुंथे होते हैं.
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आपके चिट्ठे के नाम (भाषा-राजनीति) के विपरीत आपसे आशा रहेगी कि आप भाषा के अन्य पहलुओं यथा भाषा का समाजशास्त्र, भाषा का मनोविज्ञान, भाषा का विज्ञान्, भाषा की तकनीकी आदि पर भी लिखते रहेंगे |
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डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह की पुस्तक ‘ भाषा का समाजशास्त्र ' में कहा गया है कि मुण्डा भाषाओं के मूल शब्दों में पुरुषवाचक व स्त्रीवाचक अंशों / शब्दों को जोड़कर पुलिंग व स्त्रीलिंग अर्थों की सूचना दी जाती है।
8.
श्रीवास्तव जी की हिंदी में रचित मौलिक पुस्तकों में प्रगतिशील आलोचना (1962), शैलीविज्ञान और आलोचना की नई भूमिका (1979), भाषा शिक्षण (1978), संरचनात्मक शैलीविज्ञान (1979), प्रयोजनमूलक हिंदी व्याकरण (1983), भाषाई अस्मिता और हिंदी (1992), हिंदी भाषा का समाजशास्त्र (1994), हिंदी भाषा संरचना के विविध आयाम (1995), भाषाविज्ञान: सैद्धांतिक चिंतन (1997), अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान: सिद्धांत एवं प्रयोग (2000) और साहित्य का भाषिक चिंतन (2004) उल्लेखनीय हैं।
9.
गिरधर जी, आपका हिन्दी चिट्ठा-जगत में हार्दिक अभिनन्दन | आपका भाषा-राजनीति को समर्पित चिट्ठा देखकर मन प्रफ्फुल्लित हो गया | यह इस बात को इंगित करता है कि अब हिन्दी चिट्ठाकारी में कितनी विविधता आ गयी है | यह बहुत ही उत्साहवर्धक संकेत है | आपके चिट्ठे के नाम (भाषा-राजनीति) के विपरीत आपसे आशा रहेगी कि आप भाषा के अन्य पहलुओं यथा भाषा का समाजशास्त्र, भाषा का मनोविज्ञान, भाषा का विज्ञान्, भाषा की तकनीकी आदि पर भी लिखते रहेंगे | अनुनाद सिंह